पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४२

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विद्यापति ।

दूती। ३७१ छल मनोरथ जौवन भेले कत न करब रङ्ग। से सबे पेम ओड़ धर न रहल भेल हृदय भङ्ग ॥ २ ॥ तथुहु उपर छल मनोरथ आवे कि करव साध । अइसनि भए अपराधिनि भेलाहु जे छल तथिहु बाध ॥ ४ ॥ माधव आवे तो इ बड़ दोस । जतए जे किछु बोलिअ चालिअ तथि गुरुजन रोस ॥ ६ ॥ अवस निकट आएब जाएब बिनअ कर से नारि ।। दिने साते पाचे वाटहु घाटहु दिठिहु हलु निहारि ॥ ८ ॥ राधा । २७२ आरे विधिवस नयन पसारल पसरले हरिक सिनेह । गुरुजन गुरुतरे डरे सखि उपजल जिवहु सन्देह ॥ २ ॥ दुरजन भीम भुजङ्गम वम कुवचन विषसार । तेह तख विषे जनि माखल लाग मरम कनियार ॥ ४ ॥ परिजन परिचय परिहरि हरि हरि परिहर पास । सगर नगर बड़ पुरीजन घरे घरे कर उपहास ॥ ६ ॥ पहिलुक पैमक परिभव दुसह सकल जन जान । धैरज धनि धर मने गुनि कवि विद्यापति भान ॥ ४ ॥