पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| १२ विद्यापति । माधव । २१ चाँद सार लए मुख घटना करु लोचन चकित चकोरे ॥ अमिय धोए ऑचरे जनि पोछल दह दिस भेल उजीरे ॥ २ ॥ कामिनि कोने गढली । रूप सरूप मोहि कहते असम्भव लोचन लागि रहली ॥४॥ गुरु नितम्व भरे चलए न पारए माझ खीनिम निमाइ । भॉगि जाइति मनसिजे धरि राखलि त्रिवलि लता अरुझाइ ॥६॥ भनइ विद्यापति अदभुत कौतुक इ सव चचन सरूपे । रूपनरायन इ रस जानथि सिवसिंह मिथिला भूपे ॥८॥ (५) सीनिम == क्षीण, कृश । निमाइ=निर्मित । (६) भॉगि=टूट जाना । अरुझाइ =लपेट कर। ठूती । ૨૨ शुनह नागर कान। राजकुमरि राधिका नाम ॥२॥ जटिला वधू नवीन बालि । अपन सोभावे कर खेयालि ॥४॥ रस न परशे तकर अङ्ग । कैसने होयब तोहर सङ्ग । भने विद्यापति न शुने नीत । ता बिनु कानू कि धरव चीत ॥८॥ (३) पालि=वाला । ( ४ ) यालिसेल । -