पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१३८

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विद्यापति ।

सखी । २६ ३ रजनी शेप बर नागरि नागर वइसल सेजक माही । हेरि सखि तोरित मन्दिर भीतर हस हस वइसल ताही ॥ २ ॥ सहचरि मेलि केलि कलपतरु कर कत रस परकासे । । रजनिक रङ्ग कहइते नव नागरि पिया मुख झॉपल चासे ॥ ४ ॥ दुहु मुख निरखि हरखि सव सहचरि पुलकिनि रह्ल निहारि ।। पीत बसन लइ निज तनु झॉपल लाजे लजायोलि गरि ॥ ६ ॥ तव हरि नागरि केरे अगोरल डुबल सुख सिन्धु माझ । ललिता ललित कहि दुहु बेश खण्डित सजात अनुपम साज ॥८॥ दुहु रूपे मगन भेल सव सखीगन दिन रजनि नहि जान ।। अरुण उदय भेल जटिला शवद पाल कबिशेखर इह भनि ॥१०॥ सखी । विछोह विकल भेल दुहुक परान । गर गर अन्तर झरय नयान ॥ ३ ॥ दुहु मने मनसिज जागि रह । तिल विसरन नहे केहु काहु ॥ ४ ॥ निशवदे सूतल निन्द् नहि भाय । बियोग बियाधि बियारल गाय ॥ ६ ॥ दुहुक दुलह नेह दुहु भल जान । दुहु जन मिलने मधथ पचवान ॥ ८ ॥ कबिशेखर जान इह रस रङ्ग । परबस पेम सतत नह भङ्ग ॥५°