पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१३४

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विद्यापति ।।

माधव । २५५ कुसुमित कुजहि कातर कान । कामिनि लागिकत करु अनुमान ॥ २ ॥ की करव कह मेरे सुबल सङ्घाति । कलावति कॉजि अवधि करु अति ॥ ४ ॥ दारुण गुरुजन किय करु वाधा । किय लागि मानिनि भैगेल राधा ॥ ६ ॥ तपनक तापे किय चलए न पार । गरुञ नितम्ब पीन कुचमार ॥६॥ सजन सहित किय बाढल नेह । इथे किय धनि नहि तेजल गेह ॥१०॥ विपद् सम्पद किय बुझइन पारि । कैसने वञ्चय से सकुमारि ॥१२॥ चोधि सुबल कहु शुन गुनमन्त । शेखर कह धनि मिलव नितन्त ॥१४॥ माधव । २५६ रयनि छोटि अति भीरु रमनी । कति खने औब कुञ्जरगमनी ॥ २ ॥ भमि भुजङ्कम सरणा । कत सङ्कट ताहे कोमल चरणी ॥ ॥ विहि पार्य कर परिहार । अबिधिन सुन्दर करु अभिसार ॥ ६ ॥ गगन सघन महि पड़ा बिधिनि विद्यारत उपजय शङ्का ॥" दश दिश घन अन्धियारा । चलइते खलइ लखइ नहिं पारा ॥ सब जनि पलटि भुललि । ओत मानवि भानत लाल ।' विद्यापति कवि कहइ । प्रेमहि कुलवति पराभव सहई ।