पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१३३

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विद्यापति । सखी । २५७ आजु साजनि धनि अभिसार । चकित चकित कृत बॅरि विलोकइ गुरुजन भवन दुयार ॥ २ ॥ अति भय लाजे सघन तनु कपिइ झापइ नील निचोल ।। कत कत मनहि मनोरथ उपजत मनसिंधु मनहि हिलोल ॥ ४ ॥ मन्थर गमनि पन्य दरसायोलि चतुर सखि चलु साथ । परिमले हरित हरित करि बासित भाविनि अवनत माथ ॥ ६ ॥ तरुण तमाल संग सुख कारण जगम कांचन बेलि । केलि विपिन निपुन रस अनुसार वल्लव लोचन मेलि ॥ ८ ॥ सखी । २५६ सहचर बात धयल धनि श्रवने । हृदय हुलास कहत नहि बचने ॥ २ ॥ सहचरि समुझल मरमक वात । सजाग्रोल जहसे किछु लखइनजात ॥ ४ ॥ शैतावरे तनु आवरि देलि । चाहु पवन गति संगै करि लेलि ॥ ६ ॥ जइसन चॉद पवने चलि आइ । अहसन कुञ्ज उदय भैलि राइ ॥ ८॥ कानु धरल जव राहिक हात । वैसल सुवदनि कह लहु वात ॥१०॥ कुच युग परशे तरसि मुख मोर । भनइ विद्यापति आनंद और ॥१२॥