पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१२५

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विद्यापति । १२१ दूती। २३७ चल चल सुन्दर सुभ कर प्राज । ततमत करइत नहि हो काज ॥ २ ॥ गुरुजन परिजन डर करु दूर । विनु साहस सिधि आस न पूर ॥ ४ ॥ चिनु जपले रिधि केयो नहिं पाव विनु गेले घर निधि नहि आव ॥ ६ ॥ ओ परवल्लभ तहि पर नारि । हम पय मध दुहु दिस गारि ॥ ८॥ तोह हुनि दरशन इह मन लाग । तत कए देखिय जेहन तुय भाग ॥१०॥ भनई विद्यापति सुन वरनारि । जे अङ्गीरिय तॉन गुनिअ गारि ॥१२॥ टूती । २३८ धनि धनि चलु अभिसार ।। शुभ दिन आजु राजपने मनमथ पायोब कि रीति वियार ॥ २ ॥ गुरुजन नयन अन्ध करि आयोल बान्धव तिमिर विशेप ।। तुय उर फुरत बाम कुच लोचन वहु मङ्गल करि लेख ॥ ४ ॥ कुलवति धरम करम अव सव गुरु मन्दिरे चलु राखि । प्रियतम सङ्गे रङ्ग करु चिदिने फलत मनोरथ शाखि ॥ ६ ॥ नीरदे विजुरि विजुरी सञो नीरद किङ्किनि गरजन जान । हरिखे वरिसे फल सब शाखी शिखिकुल दुहु गुन गान ॥ ८ ॥ 16