पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१२४

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| ११६ विद्यापति । सखी । २३१ सिरिहि मिलल देहा, न कुचे चान रेहा, घामे न पिउल सुगन्धा । अधर मधुरी फूल, देखिये ताहीर तूल, धयलहि अछ मकरन्दा ॥ २ ॥ रामा अइलि हे पिया विसराइ । पुरुष केसरि जनि, दुमन लता धनि, छाइते जा असिलाइ ॥ ४ ॥ गेलिहि कयलह मान, की अवसर आन, की सिसु वालभु तोरा ।। मुसए गेलि धन, जागल परिजन, लगहि कलाओक चौरा ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति, सुन चरजीवति, | इ रस केओ के जाने । राजा सिवसिंह, । रूपनरायन, लखिमा देवि रमाने ॥ ८ ॥ दूती ।। २३२ ठ माधव कि सुतासे मन्द । गहन लोग देख पनिमक चन्द ।।३। हार रोमावाल जमुना गइ । त्रिवाल तरङ्गिनि विप्न अन सिन्दुर तिलक तरनि सम भास । धूसर सुखसास नहिं पर एहन समय पृजह पचबान । होश उगरास देह रात पिके मधुकर पुर कहइते वूल । अलपेश्रो अवसर दान अतु पति कवि एहो रस भान । राय सिवासंह सब रसक निधान ।। राङ्गाने विप्र अनङ्ग ॥४॥ खसास नहि परगास ॥६॥ (रास देह रतिदान ॥८॥

  • दान अतूल ॥१०॥

के निधान ॥१२॥