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विद्यापति । ठूती । २२७ तार | बदन कामिनि हे बेकत न करचे चउदिस होएत उजोरे । चॉदक भरमै अमिय रस लालचे ऐंठ कए जाएत चकोरे ।। २ ।। सुन्दरि तोरित चलिय अभिसारे ।। अबह उगत सास तिमिरे तेजव निसि उसरत मदन पसारे ॥ ४ ॥ अमिय बचन भरमहु जनु वाजह सौरभ बुजत आने । पङ्कज लोभे भमरे चलि आश्रोब करत अधर मधुपाने ।। ६ ।। तोहे रसकामिनि मधुके जामिन गेल चाहिय पिय सेवे । राजा सिवसिंह रुपनरायन कवि अभिनव जयदेवे ॥ ८ ॥
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सखी । २२८ अम्बरे वदन झपावह गोरि । राज सनइछिअ चॉदक चारि ॥ २ ॥ घरे घरे पही गेल अछ जहि । अवही दूखन लागत तोहि ॥ कतए नुकाएव चॉदक चोर । जतहि नुकाव ततहि उजार ६ हास सुधा रसे न कर उजौर । वनिके धनिके धन चोलव मार ॥ अधरक सीम दसन कर जोति । सिद्रक सीम चैसाउलि मात " भनइ विद्यापति होह निसङ्क। चॉदह को थी भेद कलङ्क ॥५॥ == == लङ्ग ॥१२॥ ।। - -