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विद्यापति । ११३ -
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-* -* -- राधा । २२१ पहिल पसार ससार सार रस परहोंक पहिल तोहार हे । हठे ऑवर मोर फेरि न हलवे रवें रस भए जाएत उघार है ॥२॥ ए हरि ए हरि आरति परिहरि हठ न करिअ पहु बाट हे । जेहे वेसहल से कि वेसाहब उचित मनोभव हाट हे ॥४॥ कञ्चने गढ़ल पयोधर सुन्दर नागर जीवन अधार हे । छुअइते रतन तुल न रह अधिक मुल किनहि न पार गमार हे ॥६॥ भनइ विद्यापति सुन हे सुचेतनि हार सञो कइसन समान है । कपट तेजिक भजह जे हरि सञो अन्त काल होअ ठाम हे ॥८॥ राधा । २२२ सगर सँसारक सारे । अछए सुरत रस हमर पसारे ॥२॥ छुइ जनु हलह कन्हाई । आरति मान न हलिअ नडाइ ॥४॥ दुरहि रहओ मोरि सेवा । पहिल पढ्ञोक उधार न देवा ॥६॥ हृदये हार मोर देखी । लोभे निकट नहि होएब बिसेखी ॥८॥ मिलते उचित परिपाटी । मधय मनोज घरहि घर साटी ॥१०॥ विद्यापति कह नारी । हरि सञो कैसन रौक उधारी ॥१२॥