पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/११४

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विद्यापति ।

राधा । २०७ पिअ रस पेसल प्रथम समाजे । कत खन राखब अखंडित लाजे ॥२॥ कह गजगामिनि जत मन जागे । अपने नागरि पन पिअ अनुराग ॥४॥ आचर चीर धरइ हसि हेरी । नहि नहि वचन भनव कति बेरा ॥६॥ दुहु मन पुरल उभय रति रड़े । तइअों से धनुगुन न छाड़ अनङ्ग ॥२॥ भनइ विद्यापति एह रस जाने । नृप सिवसिंह लाखमा देई रमान ॥५॥ माधव । २०६ सुचल सञो बइसि साम । कय रजनि विलास कामे ॥२॥ से जे सुवनि सुन्दरि राई । आवेशे हियाक माझ लाइ ॥४॥ चुम्बन करले कतहुँ छन्द । रभसे विहसि मन्द मन्द ।।६।। वह विधि केलि करल सौई । से सब सपन भेल माई ॥२॥ किय से वचन अमिय मीठ । भेउ भङ्गिम कुटिल दीठ ॥२॥ से धनि हियाक माझ जागे । विद्यापति कह नवीन रोग ।।५।।