पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/११२

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विद्यापति । • • • • • • • • • • • • राधा । २०३ कि कहब हे सखि अाजुक विचार । से सुपुरुख मोहे कयल शिङ्कार ॥२॥ हसि हसि पहु आलिङ्गन देल । मनमथ अंकुर कुसुमित भेल ॥४॥ आचर परसि पयोधर हेरु । जनम पंगु जनि भेटल सुमेरु ॥६॥ जव निबिवन्ध खसाल कान्ह । तोहर सपथ हम किछु जदि जान ॥२॥ रति चिने जानल कठिन मुरारि । तोहर पुने जिअल हम नारि ॥१०॥ कह कविरञ्जन सहज मधु राइ । न कहे सुधामुखि गेल चतुराई ।' राधा । कि करति अबला हठ कए नाह। निरदए भए उपभोगए चाह ॥ परम प्रबल पहु कोमल नारि । हाथि हाथ जनि पडाले पञानारि ॥ कि कहब हे सखि नाह विवेक । एकहि बेरि रस माग अनः करल काकु कत कर जुग लाए । तइअो मुगुध रति रचए उपाए बिनु अवसर हठ रस नहि आव | फुलला फूल मधुकर मधु पाव भनइ विद्यापति गुनक निधान । जे बुझ ताहि लोग पञ्चबान