पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१०७

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विद्यापति । १०१ राधा । १६.७ कि कहब हे सखि कहइते लाज । जेहो करल सोइ नागरराज ॥ २ ॥ पहिल वयस मझु नहि रति रङ्ग । दूति मिलायल कानुक सङ् ॥ ४ ॥ हेरइते देह मझु थर थर कॉप । सोइ लुबुध मति ताहे करु झॉप ॥ ६ ॥ चेतन हरल आलिङ्गन बेलि । कि कहब किये करल रस केलि ॥ ८ ॥ हट करि नाह कयल कत काज । सेकि कहबइह सखिनि समाज ॥१०॥ जानसि तव काहे करसि पुछारि । से धनि जे थिर ताहि निहारि ॥१२॥ विद्यापति कह न कर तरास । ऐसन होयल पहिल विलास ॥१४॥ राधा । १६८ कि कत्व हे सखि आजुक बात । मानिक पड़ल कुवनिक हात ॥२॥ काच काञ्चन न जानय मूल । गुञ्जा रतन करय समतूल ॥४॥ जे किङ कसु नहि कला रस जान । नीर खीर दुई करय समान ॥६॥ तन्हि सौ कॅहा पिरात रसाल । वानर कण्ठे कि मोतिम माल ॥८॥ भनइ विद्यापति इह रस जान । वानर मुह की शोभय पान |॥१०॥