पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१०३

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विद्यापति । ६७ सखो। १८६ ए धनि ऐसन कहबि मोय । आजु जे केतन देखिय तोय ॥२॥ नयन चयन आनहि भॉति । कहइते कहिनी भुलसि पॉति ॥४॥ सुरङ्ग अधर विरङ्ग भैलि । का सञो कामिनि कयलि केलि ।।६।। बेकत भइ गेल गुपुत काज । अतए ककर करह लाज ॥८॥ सघन जघन कॉपय तोर । मदन मथन कयल जोर ॥१०॥ गौर पयोधर रातुल गात । नखक ऑचर झापास हाथ ॥१२॥ अमिय सागर तुहु से राहि । मुकुन्द मातङ्ग विहरे ताहि ॥१४॥ ते वुझिय मन बितय देखि । चेकत कय न कह देखि ॥१६॥ कह कविशेखर किकर लाजे । कह न कहिनी सखिनिसमाजे ॥१८॥ सुखी । १६० सुन सुन सुन्दरि नारि । मदन भण्डार के लेल कारि ॥२॥ कुन्तल कुसुन अतीते । हार तोडल कोन रीते ॥४॥ हेरइते नरवर विधाने । वुझि मझ न टुटे पिन्धाने ॥६॥ अलक तिलक मिटि गेल । सिन्दुर विन्दुहि विगलित भेल ॥८॥ विद्यापति रस पाव । प्रथम समागम पुनमति गाव ॥१०