पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१००

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६ है। विद्यापति । सखी । १८३ साजनि अकथ कहि न जाए । अबल अरुण सासिक मण्डल भीतर रह चुकाए ॥२॥ कदलि ऊपर केसरि देखल केसरि मेरु चढला । ताहि ऊपर निशाकर देखल किर तो ऊपर बसला ॥४॥ कीर ऊपर कुराङ्गनि देखल चकित भमए जनी । कीर कुरङ्गिनि ऊपर देखल भमर उपर फनी ॥६॥ एक असम्भव ग्राओं देखल जल विना अराबन्दा । बेबि सरोरुह ऊपर देखल जैसन दृतिय चन्दा ॥८॥ भने विद्यापति अकय कया इ रस के के जान । राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमा देवि रमान ॥१०॥ (८) घेवि= दुई। सखी । १८४ प्रथम दरस रस रभस न जानए कि करति पहु सञो कला । नवि नलिनी जनि कुञ्जरे गञ्जलि दमने दमन तनु भली ॥२॥ की शारे देखिये अनूपे । मधुलोभे मुकुल कुसुम दुल कलपए आरति भूखल मधूपे ॥४॥