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विदेशी विद्वान


वालों के समाज में वे फुरसत पाते ही पहुंच जाते। उनमें एक बड़ा भारी गुण यह था कि वे अपरिचित आदमियों से, चाहे वे जिस देश के हो, चाहे जो भाषा बोलते , बड़ी जल्दी घनिष्ठता पैदा कर लेते थे। इटालियन और फ्रेञ्च भाषा के वे शीघ्र ही पण्डित हो गये। नौकरी करने और विदेशी भाषायें सीखने से जो समय मिलता था उसे वे खेल-तमाशे में बिताते थे। वे नाटक बहुत देखते थे। कभी-कभी नाटक खेलते भी थे। यार-दोस्त भी उनके कम न थे। वे उनसे भी मिलने जाया करते थे। इस पर भी उन्हें फोटोग्राफी, मेस्मरेज़म और लकड़ी पर नक्काशी का काम सीखने के लिए भी समय मिल ही जाता था।

१८६० में उनकी भेट, केम्ब्रिज में, सैयद अब्दुल्ला से हुई। सैयद अब्दुल्ला अवध-प्रान्त के निवासी थे। वे अरबी, फ़ारसी और उर्दू के विद्वान थे। विलायत में लोगो को वे इन्हीं तीनों भाषाओं की शिक्षा दिया करते थे। थोड़े ही दिनों के परिचय से अब्दुल्ला पर पामर की बड़ी श्रद्धा हो गई। वे भी उनसे पूर्वोक्त तीनों भाषायें पढ़ने लगे। पामर की बुद्धि वड़ी ही विलक्षण थी। वे मिलनसार भी परले सिरे के थे । वे जिससे मिलते वह उनके गुणो पर मुग्ध हो जाता। लख- नऊ के शाही खानदान के नवाब इकवाल-उद्दौला उनसे भेंट करके बड़े प्रसन्न हुए। नवाव साहब बड़े ही विद्या-रसिक थे। पामर के विद्या-प्रेम से वे इतने खुश हुए कि तीन वर्ष