इसमें आपने “तनुगात्रयष्टिः” का अर्थ करने की ज़रूरत ही नहीं समझी, और―“काशांशुका” और “आपक्वशालि- रुचिरा” का अर्थ आपने किया है―“Withrobe of sug- arcane and ripening rice”―अर्थात् ईख और पकते हुए धान जिसकी पोशाक हैं। यह अर्थ ख़ूब रहा। आचार्य्यो के योग्य ही हुआ। ईख बेचारी का तो कही ज़िक्र ही नहीं। न मालूम साहब ने उसे कहाँ पाया। शायद आपकी पुस्तक मे “इत्वंशुका” पाठ रहा हो। पर सम्भावना कम है। क्योकि यहाँ पर कालिदास का मतलब कास के सफ़ेद फूलों ही से है। इस बात को सर्ग के अन्त में उन्होने―“विक- सितनवकाशश्वेतवासो वसाना”―कहकर स्पष्ट कर दिया है। शरद् ऋतु लगते ही कास फूलता है। यह लोक प्रसिद्ध बात है। उसी को लक्ष्य करके कालिदास ने लिखा है। सो कास को आपने ईख कह दिया। अच्छा, इसे हम पाठान्तर माने लेते हैं। पर पकते हुए धान की पोशाक से क्या मत- लब? कास या ईख की पोशाक तो शरद् को पहनाई जा चुकी, अब धान की पोशाक की और क्या ज़रूरत? क्या दो पोशाकें एक ही साथ पहनाई जायँगी? अथवा क्या एक ही पोशाक दो रङ्ग की होगी? कवि का मतलब तो कुछ और ही मालूम होता है। उसका अभिप्राय तो धानो के खेतों के रङ्ग वा रुचिरता से जान पड़ता है। जब धान के खेत पकने को होते हैं तब उनमें पीलापन आ जाता है। वह पीलापन कवियों
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मुग्धानलाचार्य्य