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विद्वान् कहीं का क्यों न हो वह सदा ही आदरणीय और उसका चरित सदा ही कीर्तनीय होता है।

इस चरितमाला के चार चरित ऐसे पुरुषों के हैं जिन्होंने भारत से हज़ारों कोस दूर योरप में जन्म लेकर, केवल विद्याभिरुचि की उच्च-प्रेरणा से, संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और अनेक उपयोगी ग्रन्थों की रचना भी की। एक ने अरबी के सदृश क्लिष्ट भाषा का चूड़ान्त ज्ञान प्राप्त करके अरब के निवासी विद्वानों तक से साधुवाद प्राप्त किये। अलबरूनी ने तो बड़े-बड़े कष्ट उठाकर यहीं भारत में संस्कृत भाषा सीखी और वह अपनी भाषा में एक ऐसा ग्रन्थ लिखकर छोड़ गया जो अब तक बड़े ही महत्त्व का समझा जाता है।

जिनके चरित इस पुस्तक में निबद्ध हैं उनके गुण सर्वथा अनुकरणीय हैं। उनके पाठ से पाठक यदि कुछ भी न सीख सकें या कुछ भी न सीखना चाहें तो भी, आशा है, पढ़ने में ख़र्च हुए अपने समय को वे व्यर्थ गया न समझेंगे।

दौलतपुर, रायबरेली महावीरप्रसाद द्विवेदी
१६ सितम्बर १९२७