स्पेन्सर का मत है कि विज्ञान पढ़ने से मनुष्य अधार्मिक नहीं होता। विज्ञान से धर्मनिष्ठा अधिक बढ़ती है। जो लोग ऐसा नहीं समझते उन्होंने विज्ञान की महिमा को जाना ही नहीं। इस विषय पर उसने “शिक्षा” नाम की अपनी पुस्तक में बड़ी ही विज्ञता-पूर्ण बहस की है। उसने लिखा है कि ज़रा-ज़रा सी बातो पर बाद-विबाद करके व्यर्थ समय नष्ट करना और सृष्टि-रचना मे परमेश्वर ने जो अगाध चातुर्य दिखलाया है उस पर ज़रा भी विचार न करना बड़े ही आश्चर्य की बात है। परन्तु पीछे उसका मत कुछ और ही तरह का हो गया था। जिस स्पेन्सर ने सृष्टि-सम्बन्धिनी एक “अगम्य, अमर्य्याद, और सर्वव्यापक शक्ति” की महिमा गाई उसी ने “विश्वकर्मा, जगन्नायक और सर्वशक्तिमान ईश्वर” की अपने समाज-घटना-शास्त्र में कड़ी समालोचना की। यह शायद धर्म्मश्रद्धा में उसकी शक्ति का कारण हो। क्योंकि धर्म- विषयक बातों में श्रद्धा ही प्रधान है।
स्पेन्सर ने पचास-साठ वर्ष तक अविश्रान्त ग्रन्थ-रचना की। उसके ग्रन्थो को पढकर संसार के सुशिक्षित लोगों के विचारों में खूब फेर-फार हो रहे हैं। आशा है कि इस फेर- फार के कारण सांसारिक जनों का कल्याण होगा। स्पेन्सर का विद्याभ्यास दीर्घ, ज्ञान-भाण्डार अगाध और परिश्रम अप्रति- हत था। वह अत्यन्त कर्तव्यनिष्ठ, बढ़-निश्चय और निर्लोभी था। उसके समान तत्त्वज्ञानी योरस में बहुत कम हुए हैं।