मनुष्य की उन्नति, ख्याति और प्रतिष्ठा का एक-मात्र कारण उसके गुण होते हैं। गुणों का सम्बन्ध चाहे दान-धर्म्म से हो, चाहे परोपकार से हो, चाहे विद्वत्ता से हो, चाहे देश या समाज-सेवा से हो, उत्कर्ष का कारण होते वही हैं। गुणहीनों को प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त होती। गुण कहीं और किसी में भी क्यों न हों, वे सदा ही गृहणीय होते हैं―
गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्ग न च वयः
चाहे वे अपने ही देश के निवासी में हो, चाहे अन्य देश के निवासी में, उनको ग्रहण करना ही चाहिए। उनके अनुकरण से मनुष्य का सदा ही कल्याण होता है।
इस पुस्तक मे जिन ग्यारह जीवनचरितों का संग्रह है उनके नायक सभी विदेशी और सभी विद्वान् है या थे। उनमें से आठ ऐसे हैं जिनकी ख्याति का कारण उनकी अपूर्व विद्वत्ता ही है। यह नहीं कि उनसे और गुणों का सम्पर्क ही न हो। मतलब इतना ही है कि और गुणों की तुलना में उनकी विद्वत्ता ही विशेष प्रशंसनीय है। शेष तीन में से एक की प्रसिद्धि का कारण स्वजाति-सेवा और शिक्षा-प्रेम, दुसरे का व्यवसाय-नैपुण्य और तीसरे का नूतन-धर्म-स्थापना है। परन्तु इन गुणों को भी विद्वत्तामूलक ही समझना चाहिए। और