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अध्यापक एडवर्ड हेनरी पामर
ग़ज़ल्ले सादी पर एक ग़ज़ल जो भेजी है कैसी लुत्फ़-अंगेज़
बल्कि हैरत-अंगेज है। इस काबलियत के सिले में साहब
मौसूफ़ को पन्द्रह सौ महीना का एक आला ओहदा बम्बई में
मिलता है मगर अभी तअम्मुल है। जहे बख्ते हिन्द, जहाँ
ऐसे लायक और आलिम कारफरमॉ हो। साहबे ममदूह से
मेरा भी गायबाना इत्तहाद बहुत बरसों से है। मगर उनका
शौके इल्म व जबॉदानी रोज़अफ़ज़ जूं ही सुनता हूँ। चुनॉचे
अब अरबी इल्म और जबॉ मे भी कमाल हासिल कर लिया
और खुद अरब जाकर नाम कर आये और अब उसकी तारीख
लिख चुके हैं जिसका जिक्रे खैर भी उनके ख़त से वाजेह है।
ख़ुदा उनके इल्म और उम्र में खैर व बरकत दे। ज्यादा ज्यादा
वस्सलाम। मकाम दारुल मन्सुर, जोधपूर । मुहम्मद मर-
दान अली खॉ गफरहू-दिसम्बर सन् १८७१ ईसवी ।
[जनवरी १९१३
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