नीचे एक पत्र उद्धृत किया जाता है, जिसे पामर की एक गजल सहित नवाव निज़ामुद्दौला बहादुर ने अवध-अखवार को भेजा था-
साहवे मन मुरब्बी मुश्फिकी हमदॉ फख्ने हिन्द अज़ीज़े दिलहाय अहले इंगलेड सैयद अब्दुल्ला साहब बहादुर प्रोफ़ै- सर ने मुकामे दिलकश लन्दन से अपने खत मे यह कन्दे मुकर्रर- खत मै गज़ल फाज़िल अजल्ल हकीम व जहाँदीदा जहाँआशना खुल्के फ़ख्रे इंगलिस्तान मिस्टर एडवर्ड पामर साहब बहादुर का मेरे पास इस गर्ज से भेजा है कि उनकी फारसी ग़ज़ल से मैं भी लुत्फ उठाऊँ और उनके हाथ का लिखा देखकर इवे- दाय सवादे ख़त से चश्मे जॉ को मुनौवर करूँ और वादहू वास्ते उलुल-अबसार अहले-हिन्द के वराय दर्ज अखबार भेजूंँ, ताकि अहले-हिन्द जानें कि नाज़ परवरदा विलायते दूर दस्त इँगलेड के वित्तवा ऐसे लायक फायक़ तब्बास मेहनती अमीर शायक होते हैं कि घर बैठे उलूम शरकी में. जिसमे अक्सर अहले मशरिक तो प्रारी व आतिल हैं, वे कमाल खुदादाद हासिल करते हैं। सैयद साहव ने अपने खत में लिखा है कि ये साहव जवाँसाल जवॉबख्त उलूम-दान निहायते योरप के सिवा जैसे उलूमे मशरिक में दस्तगाह रखते हैं वैसे ही उसकी खत व कितावत और तहरीर व तकरीर में यदेतूला। और तुरफा यह कि मर जूकिये तवा से शेर भी फ़रमाते हैं। चुनाँचे