पूर्णतया सिद्ध करने के लिए मैंने उनके निबन्धों को लखनऊ के
उलमा, अध्यापकों और साहित्य-सेवियों की एक बड़ी सभा
करके, १ जून १८६७ को, उसके सामने पेश किया। उन
सज्जनों की सहायता से उन निबन्धो की भाषा की शुद्धता
और सरलता पर विचार हुआ। अब मैं इस बात की
तसदीक करता हूँ कि इन निबन्धों की भाषा बहुत ही शुद्ध
और सुन्दर है और उनकी भाषा में और उस भाषा मे जो इस
देशवाले काम में लाते हैं--भाव दरसाने, उपमा देने, या शब्दों
का प्रयोग करने में कोई अन्तर नहीं है। मैं इस बात की भी
तसदीक करता हूँ कि पामर साहब को पूर्वोक्त तीनों भाषाओं
मे पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त है।
(१) सैयद ,गुलाम हैदर, इन्न मुंशी सैयद मुहम्मद खॉ बहादुर ।
(२) नवलकिशोर, स्वत्वाधिकारी और सम्पादक "अवध-असवार"
(३) सैयद अली इन्न सैयद अहमद साहब, लखनऊ के शाही विश्व-विद्यालय के अध्यापक
( २ )
केम्ब्रिज के मेंट जान्स कालेज के अध्यापक मिस्टर ई० एच० पामर मेरे मित्र हैं। कई साल तक उन्होंने मुझसे पढ़ा