संशोधन की कुछ भी आवश्यकता नहीं और योरप भर में कोई
आदमी ऐसी कविता नहीं लिख सकता-
चुकि है हमदे खुदा ताजे सरे नुतको वर्या
चतर-नअते ईसये गरदूंँ नशीं हो सायबाँ,
क्या अजब बरसाये अख़तर के जवाहिर आसर्मा
कहकर्जा के जौहरी बाजार से हो शादर्मा
मोरछल ताऊस लाये और कलगी खुद हुमा
दे ज़रे गुल की बनी पोशाक पुर जर वोर्स्ता
बोतले' गुऊचे बनें गुलहाय गुलशन हों गिलास
और गुलाबी होय बस रंगे बहारे गुलसिता ।
शाहिदे नाजे चमन रक्कासा होकर आयें फिर
दे इन्हें अकदे सुरैया का वह झुमका आसर्मा ।
सब जवानाने चमन गायें बजाये पेश गुल
नगमये बुलबुल को सुन चक्कर मे आये बागवां ।
यों सदा निकले बहम मिलकर बजाये साज जब
धूम दर पर धूम दर पर, दर पै तेरे शादिर्या ।
कहकशी तो हो सड़क जर्शते तार्वाँ हो नुजूम
रोशनी में उसपै सैयारों की दौड़े बग्धियाँ ।
आसा बन जाय पुल खुरशैद व मह हो लालटेन
और वजाये सिलसिला तारे शुभआयी हों अर्या ।
चर्ख बन जाये अमारी के तार्वा झूल हो,
फील हो अब सियः और राद होवे फीलर्बा ।
धुन में मस्ती की हवा पर जव चले वह झूम झूम
मौजे दरिया उसकी वेडी हो कदम कोहे की ।
हम-रकाबे अबलके. दोरी हो यह सारा जुलूस
और सवारी में मेरे ममदूह की होवे रवीं ।
७