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विदेशी विद्वान्


आक्सफर्ड विश्वविद्यालय मे जी० एफ० निकोल साहब, एम० ए०, अरबी भाषा के अध्यापक थे। मालूम नहीं इस समय वे जीवित हैं या नहीं। वे संस्कृत और फ़ारसी के भी विद्वान थे। पामर साहब से और उनसे मित्रता थी। उन्होंने फारसी के मशहूर शायर जामी और हाफ़िज़ की तारीफ़ में कुछ कविता फारसी मे लिखकर पामर साहब को देखने के लिए भेजी। पामर को वह पसन्द न आई। उसे देखकर प्रापने एक व्यङग्य-पूर्ण कविता लिखी और निकोल साहब को भेज दी। उसका कुछ अंश नीचे दिया जाता है-

तू मीदानी जे कितमीरो नकीरम
कि अज़ तहरीरे खुद मन दर नफीरम ।
न मीश्रायद मरा रस्मे किताबत
चे मी पुरसी जे इनशाये जमीरम ?
दवात अगुश्ते हैरत दर दहानस्त,
पये तहरीर गर मन खामा गीरम ।
हमी किरतास मीपेचद जे गुस्सः
गरश बहरे नविश्तन् नामा गीरम ।
कलमदां मीनुमायद सीना रा चाक
कि मन दर जेये नादां जाय गीरम ।
जनम गर दस्त दर आगोशे मजमूंँ
जवानी के नुमायद अकले पीरम ?
फकीराना सवाले फिक्र दारम,
कि पेशे फ़िक्र कमतर अज़ फकीरम ।