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विचित्र प्रबन्ध।

ही से सावित्री ने मृत्यु का अनुगमन किया था। बालक के हृदय में भी प्रबल विश्वास होता है। इसीसे वह मृत्यु का आँचल पकड़ कर उसको लोटा लाना चाहता है। वह किसी तरह इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि―मास्टर के भय से शून्य―सन्ध्या को बड़ी साध से जो कहानी वह सुन रहा है वह साँप के काटते ही समाप्त हो जायगी। इसी कारण बुआ को उस महापरिणाम के सदा बन्द घर से कहानी फिर लौटा लानी पड़ती है। कहानी को मृत्यु के पास से लौटा लाने में उन्हेँ कुछ कठिनता भी नहीं है; वह अनायास, बहुत ही सहज में, उसे लौटा लेती हैं। केवल किसी केले की नाव में बहा कर और फिर मन्त्र की सहायता से मुर्दे को जिला कर वह अपना काम सिद्ध कर लेती हैं। इससे झमा झम बरस रहे पानी से परिपूर्ण रात्रि में, निश्चल प्रदीप के प्रकाश मेँ, बालक के हृदय से मृत्यु का भय एक दम ही दूर हो जाता है। वह मृत्यु की कोमल मूर्त्ति देखने लगता है। उसको मृत्यु के बारे मेँ एक रात की निद्रा से अधिक और बाछ नहीं मालूम होता। कहानी जब चुक जाती है, थकी हुई दोनों आँखें आराम से आप ही बन्द हो आती हैं, उस समय भी तो बालक की नन्हीं सी जान नि:स्तब्ध और निस्तरङ्ग समय के प्रवाह में निद्रा की नाव पर छोड़ दी जाती है। उसके बाद प्रात:काल न जाने कौन दो-एक माया-मन्त्र पढ़ कर उसे जगत् मेँ जगा देता है!

पर जिसे विश्वास नहीं है, जो डरपोक इस सौन्दर्य-रस के स्वाद के लिए भी इंच भर असम्भव को स्वीकार करना नहीं चाहता उसके लिए कहीं कुछ भी "इसके बाद" नहीं है। उसके लिए