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वसन्त।

सब तो दक्षिण-पवन अपने डेरे में जाकर जान न दे देगा; किन्तु हानि किसकी होगी?

अभी यही थोड़े दिनों की बात है कि हम लोगों के आवला, साखू आदि वृक्ष अपने पत्ते गिरा रहे थे; किन्तु दूर से आये पथिक के समान फागुन का महीना ज्योंही द्वार पर आकर उपस्थित हुआ त्योंही वृक्षश्रेणी ने पत्ते गिराने का काम बन्द करके रात ही भर मेँ कोपल निकालने का काम शुरू कर दिया।

हम मनुष्य हैं। हम से वह होने का कोई उपाय नहीं है। बाहर चारों और जब हवा बदलती है, रङ्ग बदलता है, पत्ते बदलते हैं, तब भी हम बैलगाड़ी के बैल की तरह पीछे के पुराने बोझ को घसीटने धीरे धीरे राह में धूल उड़ात चले जा रहे हैं। गाड़ीवान उस समय जो डंडा पसलियों में हलता था वही डंडा आज भी हल रहा है।

पास पञ्चांग नहीं है। अनुमान से जान पड़ता है कि आज फागुन की अमावस या पड़िया है। आज वसन्त-लक्ष्मी षोडशी किशोरी है। परन्तु ता भी प्रति सप्ताह समाचार-पत्र निकलते हैं, और उनमें हम पढ़ते हैं कि हमारे शासक हम लोगों के कल्याण के लिए क़ानून बनाने में उसी तरह लगे हुए हैं, और दूसरा पक्ष मन लगा कर उसी के विचार में प्रवृत्त है। किन्तु संसार में यही सबसे आवश्यक बातें नहीं हैं। बड़े लाट, मँझले लाट, छोटे लाट, सम्पादक, सहकारी सम्पादक आदि की तत्परता को कुछ भी न समझकर दक्षिण समुद्र की तरंगोत्सव-सभा की ओर से प्रतिवर्ष वह पुराना संवाद देनवाला, नवजीवन का आनन्द-समाचार लेकर, उसका