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विचित्र प्रबन्ध।

हूँ। यह सन्देह एकदम बेजड़ नहीं है। परन्तु किया क्या जाय, अभ्यास ही ख़राब हो गया है।

मैं यह कह रहा था कि अभिव्यक्ति की अन्तिम सीमा पर पहुँचने के कारण मनुष्य के बहुत से भाग हो गये हैं। जैसे, जड़भाग, उद्भिद्भाग, पशुभाग, बर्बरमाग, सभ्यभाग और देवभाग इत्यादि। ये भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होते हैं। किस ऋतु में कौन भाग उत्पन्न होता है, इस बात का निर्णय करने का भार हम लेना नहीं चाहते। एक किसी सिद्धान्त को अन्त तक निबाहने की प्रतिज्ञा करने से बहुत झूठ बोलना पड़ता है। बोलने को भी राज़ी हूँ, पर आज उतना परिश्रम न कर सकूँगा।

आज पड़े पड़े, सामने देख देखकर, जो बातें सहज ही मन में आ रही हैँ उन्हीं को मैं लिखने बैठा हूँ।

लंबे जाड़े के बाद आज दोपहर को नवीन वसन्त की हवा डोलते ही मुझे मानव-जीवन में भी एक भारी असामञ्जस्य देख पड़ रहा है। विपुल के साथ-समप्र के साथ-उसका सुर नहीं मिलता। शीत-काल में जो जो काम हमको करने पड़ते थे आज भी वहीं सब काम करने पड़ते हैं। ऋतु विचित्र है पर कामों में भेद नहीं है। ऋतु के परिवर्तनों पर मन को विजयी बनाकर निश्चेष्ट कर देने में जैसे कोई बहादुरी है! मन बड़ा बहादुर है, वह क्या नहीं कर सकता! वह दक्षिण-पवन की कुछ भी परवा न कर बड़े वेग से बड़े बाज़ार की ओर दौड़ा जा सकता है। माना कि कर सकता है, किन्तु उसका यह अर्थ नहीं कि उसको वह काम करना ही चाहिए!