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विचित्र प्रबन्ध।

था। खारी पानी का न होना अवश्य ही अच्छा न होता―शायद खारी पानी के न होने से यह पृथिवी सड़ उठती।

इसी प्रकार पर-निन्दा भी यदि समाज की नस नस में घुसी हुई न होती तो कोई बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता। खारी पानी के समान पर-निन्दा भी सारे संमार को विकार से बचाये हुए है।

पाठक कहेंगे―हमने समझ लिया, तुम वही पुरानी बात कह हो; अर्थात् निन्दा के भय से समाज के लोग ठीक राह पर चल रहे हैं।

यह बात यदि पुरानी है तो बड़े आनन्द की बात है। क्योंकि मैं ता कह चुका हूँ कि पुरानी बातें विश्वास के योग्य होती हैं।

सच्ची बात यह है कि यदि निन्दा न होती तो इस संसार में मनुष्य-जीवन का कुछ गौरव न रहता। मान लो, मैंने किसी अच्छे काम को शुरू किया, पर उसकी निन्दा कोई भी नहीं करता, फिर उस अच्छे काम का मूल्य क्या है! मैंने कोई अच्छा लेख या ग्रन्थ लिखा, पर उसकी निन्दा करनेवाला कोई नहीं है, तो उस ग्रन्थ के लिए इससे बढ़कर अनादर क्या हो सकता है! मैंने अपना जीवन धर्म-चर्चा के काम में अर्पण कर दिया पर जो किसी ने उसके भीतर कोई छिपा हुआ बुरा अभिप्राय न देखा तो फिर साधुता बहुत ही सहज न हो गई!

महत्त्व को पग-पग पर निन्दा के काँटों के ऊपर चलना पड़ता है। इसमें जो हार मान लेता है वह वीरों की सद्गति को नहीं पाता। निन्दा के द्वारा मनुष्यों के केवल दोष ही दूर नहीं होते;