लिखी है, उसी व्यर्थ के आँसू बहाने का काव्य मेघदूत भी है। इस बात को सुनकर बहुत लोग मुझसे बहस करने के लिए तैयार हो जायँगे। बहुत लोग तो यह कहने लग जायँगे कि जब प्रभु के शाप से यक्ष अपनी प्रियतमा से अलग हुआ है तब तुम मेघदूत की अश्रुधारा को अकारण क्यों कहते हो? मैं बहम करना नहीं चाहता-अतः इन बातों का मैं कुछ उत्तर न दूँगा। लेकिन मैं यह ज़ोर देकर कह सकता हूँ कि यक्ष का निर्वासन आदि सब कालिदास की कल्पना है। वह काव्य-रचना का एक उपलक्ष्य मात्र है। इसी भराव के ऊपर कालिदास ने मेघदृत का भवन बनाया है। इस समय हम उस भराव को निकाल डालें तो कोई हानि नहीं है। सच्ची बात तो यह है "रम्याणि वीक्ष्य मधुराँश्र निशम्य शब्दान्" ( मनोहर दृश्य तथा मधुर शब्दों को देख-सुनकर ) अकारण ही मन विरह से विकल हो उठता है। इस बात को अन्यत्र कालिदास ने भी स्वीकार किया है। आपाड़ के पहले दिन अकरमात् घनघोर घटा देख कर हमारे मन में एक अलौकिक विरह जाग उठता है। मेघदूत उसी अकारण-विरह का अमूलक प्रलाप है। यदि यह न होता तो विरही यक्ष मेघ को दूत न बनाकर बिजली से दूत का काम लेता। तब मेघ इतना ठहर ठहर कर, घूम फिर कर, जूही के वनोँ को विकसित कर और नागरियों को ऊपर उठी दृष्टि के कटाक्षों का आनन्द लूट कर प्रस्थान न करता।
काव्य पढ़ने के समय भी यदि हिसाब का खाता आगे खोल कर रखना पड़ता हो, और वसूल क्या हुआ, इस बात का निश्चय उसी समय कर लिया जाता हो, तो यह मैं स्वीकार करूँगा कि