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विचित्र प्रबन्ध।

कोई वर्ण की विचित्रता नहीं है; तह पर तह नहीं जमी है। इन्द्राणी की किसी पुरानी दासी ने आकाश आँगन की मेघों से बराबर करके मानो लीप दिया है। सारा आकाश काले-मटमैले रङ्ग का हो रहा है। अनेक प्रकार के अन्न के खेतों से विचित्रता धारण किये हुए पृथिवी पर अभी तक उज्वल प्रकाश की तूलिका (चित्र में रंग भरने की कूची) नहीं पड़ी; इसी कारण उसकी विचित्रता भी अभी फूट नहीं उठी। धान का कोमल मनोहर हरा रङ्ग, पाट का गहरा रङ्ग और ईख का पीला रङ्ग आदि सभी एक विश्वव्यापी काले वर्ण में मिले हुए हैं। हवा नहीं है। अभी पानी आवेगा, इस कारण कोई भी कीचड़-भरी राह में नहीं निकला। बहुत दिन पहले

ही खेतों के सब काम समाप्त हो गये हैं। पोखरों में लबालब पानी भरा है। इस प्रकार के प्रकाश-हीन, गतिहीन, कर्महीन, विचित्रताहीन, कालिमामय एकाकार दिन में दादुर का शब्द ठीक सुर में सुन पड़ता है। उस शब्द का सुर ठीक इसी वर्णहीन मेघ के समान है। वह इसी दीप्ति-रहित प्रकाश के समान निःस्तब्ध निविड़ वर्षा में व्याप्त हो जाता है। वह शब्द वर्षा की सीमा को अधिक घना करके और भी बढ़ा देता है। वह सन्नाटे से भी बढ़कर एकान्त है। वह निभृत कोलाहल है। झिल्ली की झनकार भी इसका ख़ूब साथ देती है। क्योंकि जैसा मेघ है, जैसी छाया है, उसी प्रकार झिल्ली की झनकार भी एक प्रकार का आवरण-विशेष है। वह स्वरमण्डल के लिए एक प्रकार का अन्धकार है। उससे वर्षा की रात्रि भी पूर्व हो जाती है।