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मयूरध्वनि।

के आसन-कमल को ढँक रक्खा है। इनमें कवि और गुणी की प्रतिभा की अपेक्षा धनी की पूँजी ही अधिक चाहिए। यदि दर्शक पर विलायती लड़कपन का प्रभाव न पड़ा हो और अभिनेता को काव्य पर और अपने ऊपर यथार्थ विश्वास हो, तो अपने यहाँ के अभिनय के चारों ओर से उसके बहुमूल्य व्यर्थ सामान के झंझट को झाड़ू से हटा कर, उसकी विशेषता को छुटकारा दिलाकर, गौरवान्वित करना ही सहृदय हिन्दू-सन्तान का कर्त्तव्य होना चाहिए। बाग़ के दृश्य को बिलकुल बाग़ लगा कर ही दिखावेंगे––स्त्री-चरित्र का अभिनय किसी स्त्री ही के द्वारा करावेंगे––इस प्रकार के विलायती ख़यालों के उजड्डपन को छोड़ देने का समय अब आ गया है।

साधारणतः यह कहा जा सकता है कि कठिनता अयोग्यता का चिह्न है। यदि शिल्प में वास्तविकता कीड़े की तरह घुस जाती है तो उसके भीतर के सब रस को चूस लेती है, और जहाँ अजीर्णवश रस की भूख़ नहीं है वहाँ बहुमूल्य बाहरी अधिकता धीरे धीरे भयानक रूप से बढ़ने लगती है। अन्त को यही होता है कि अन्न तो छिप जाता है, और चटनी का ढेर लग जाता है।


मयूरध्वनि

(एक दिन अकस्मात् घर के पालतू मोर की ध्वनि सुन कर मेरे मित्र बोल उठे––मैं यह मोर का कर्कश शब्द नहीं सुन सकता। मालूम नहीं, मोर के शब्द को कवियों ने अपने काव्यों में क्योँ स्थान दिया।)