पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३४९

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विचित्र प्रबन्ध । वैज्ञानिक अनुमन्धान करन ही के लिए उत्पन्न नहीं होता। हम लोगों के कुतूहल की उत्पत्ति ता अवैज्ञानिक ढङ्ग से ही होती है । हम लोगों की कुतूहल-वृत्ति पारस पत्थर की खोज में निकलती है, परन्तु उसे मिलती हैं किसी प्राचीन जीव की ठठरिया: वह निक- लती है अलाउद्दीन के विचित्र दीपक के न्निए, परन्तु उस मिलता है दियासलाई का चकम; वह चाहती है. कीमिया परन्तु उसं मिलता है रसायनशास्त्र । प्रास्ट्रालाजी के लिए वह आकाश की छानबीन करती है परन्तु उसे मिलती है श्रास्ट्रॉनमी । बह नियम नहीं हूँढ़नी, वह कार्य-कारण-परम्परा को जानना नहीं चाहती. वह हूँढ़ती है नियमों का न होना । वह सोचती है कि वह वस्तु प्राप्त हा जिसमें कार्य-कारण न हो, जहाँ कारण से कार्य और कार्य से कारण उत्पन्न होने का झंझट न रह; वह चाहती है नूतनता. परन्तु बुद्धं विज्ञान के कारण उसकी मभी नूतनता पुरातन के रूप में परिणत हो जाती हैं। इन्द्रधनुष का वह परकला-विच्छरित वर्णमाला (रङ्गों की श्रेणी) का परिवर्द्धित रूप और पृथ्वी की गति को पकं हुए ताल- फल के पतन के ममान प्रमाणित करने का प्रयत्न करती है। जिम नियम के वशवती धूलिकण हैं, उसी नियम के अधीन यह अनन्त आकाश और अनन्त काल है। इस आविष्कार के कारण प्राजकल हम लोग आनन्दित और विम्मित हो रहे हैं। परन्तु यह आनन्द और विस्मय मनुष्यों के लिए स्वाभाविक नहीं है। इस अनन्त आकाश की ज्योतिर्मण्डली का अनुसन्धान करने के लिए मनुष्य ने जब प्रयत्न करना प्रारम्भ किया था, उस समय उसकी यह दृढ़ धारणा थी कि यह ज्योतिर्मय और अन्धकार-मय दान 1