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पञ्चभूत।

स्त्रियाँ अपने पति को मनुष्य समझ कर उसका तिरस्कार भी कर सकती हैं और दूसरी ओर उसको देवता समझ कर पूजती भी है। ये दोनों भाव समान रूप से चलते हैं। एक के कारण दूसरे में कोई भी बाधा नहीं आती। क्योंकि हम लोगों के मानसिक जगत् के साथ बाह्य-जगत् का कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता।

वायु ने कहा—एक पति-देवता ही क्यों, बल्कि पौराणिक देव-देवियों के विषय में भी हमारे दो प्रकार के भाव हैं। ये दोनों भाव भी परस्पर एक दूसरे को बाधा नहीं देते। हम लोगों के देवताओं के विषय में जो जनश्रुतियाँ और शास्त्र-कथाएँ प्रसिद्ध हैं वे हमारे उच्च धार्मिक आदर्श के योग्य नहीं। हम लोगों के साहित्य और सङ्गीत में देवताओं की निन्दा लिखकर उनका तिरस्कार और उपहास भी किया गया है, परन्तु इस कारण देवताओं की भक्ति मैं कोई बाधा नहीं पड़ती। गाय को हम लोग पशु ही समझते हैं, समय समय पर उसकी निर्बुद्धिता का उपहास भी करते हैं, यदि वह खेत में जाय तो उसे लाठी से मार कर निकाल भी देते हैं और कीचड़-गोबर में भी उसको रखते हैं, परन्तु जब हम उसे भगवती कहते हैं, जब गऊ-माता कहकर उसकी पूजा करने लगत है, उस समय इन सब बातों को हम भूल जाते हैं—इधर हमारा ध्यान भी नहीं जाता।

क्षित्ति ने कहा—और देखों, जिसे गाना नहीं आता, जिसका गाना बेसुरा है उसकी तुलना हम लोग गधे से करते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि हम लोगों के गान का पहला सुर गधे के सुर से लिया गया है। जब हम इस बात को कहते हैं तब

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