पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३२३

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३१२ विचित्र प्रवन्ध । अवश्य ही कौतुक की बात है। यह देख कर सभी हँसने लगते हैं। जैसे जड़ पदार्थों में धर्म नहीं है वैसे उनमें अमङ्गति भी नहीं है। जिसके मन है, जिसका मन के द्वारा भेद-ज्ञान होगया है उसे ही उचित-अनुचित और सङ्गत-अमङ्गत आदि का ज्ञान होता है। कौतूहल नामक पदार्थ प्राय: निठुरता के रूप में परिणत होता है, और कौतुक में भी निठुरता वर्तमान है। कहते हैं कि सिराजु- द्दौला दा मनुष्यों की दाढ़ी परम्पर बंधवा दिया करता और उनकी नाक में नाम भरवा देता था । जब वे छींकने लगते थे तब मिराजु- द्दौला प्रसन्न होता और हँसता था । परन्तु इसमें असङ्गति कहाँ है ? नाक में हुलास पड़ने पर तो सभी छींकत हैं । यह ता म्वाभा- विक बात है। परन्तु यहाँ भी इच्छा और कार्य में विरोध है । जिनकी नाक में सुँघनी भरी गई है उनकी इच्छा नहीं कि वे छींकें, क्यांकि वे जानते हैं कि छींकने से दाड़ी पर ज़ोर झटका लगंगा और इससे उनको कष्ट उठाना पड़ेगा, तथापि उनको छोकना पड़ता ही हैं। इसी प्रकार इच्छा के साथ अवस्था की, उद्देश्य के साथ उपाय की और बातों के साथ कार्य की असङ्गति होती है तथा इनमें निष्ठ- रता भी वर्तमान रहती है। प्रायः जिसको देख कर हम लोग हमने लगते हैं, वास्तव में वह अपनी अवस्था को हँसने के योग्य नहीं समझता । इसी कारण पाञ्चभौतिक सभा में व्याम ने कहा है कि कमेडी और ट्रेजेडी दोनों कंवल पीड़न के मात्रा-भेद हैं। एक मैं साधारण निष्ठुरता प्रकट होती है जिससे हम लोग हँसने लगते हैं और दूमरे में अधिक निष्ठुरता प्रकाशित होती है जिसके कारण हम लोग फूट फूट कर रोते हैं }