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पञ्चभूत!

मैं इस सञ्जीवनी विद्या का प्रचार नहीं कर सकता। अतएव संसार में सबके साथ रहने पर भी मुझे सबसे अलग रहना पड़ेगा। उस समय संसार ने उसे शाप दिया―“जो विद्या तुमने हम से सीखी है वह तुम दूसरों को अवश्य सिखा सकते हो, पर स्वयं उसका उपयोग नहीं कर सकत" इसी शाप के कारण हम संसार में देखते हैं कि छात्रगण गुरु से पढ़ी हुई विद्या का उपयोग अपने काम में करते हैं: पर गुरुजी अपने सांसारिक अनुभवों से स्वयं लाभ नहीं उठा सकते। इसका कारण यह है कि निर्लिप्त रह कर विद्या पढ़ने की चेष्टा सफल अवश्य होती है, निर्लिप्त रहकर बाहर से विद्याएँ सीखी जा सकती हैं, पर कामों में लगे न रहने के कारण उनसे व्यवहार में सहायता नहीं मिल सकती। इसी कारण पहले के समय में ब्राह्मण राज-मंत्री हुआ करते थे और क्षत्रिय राजा उनकी सलाह के अनुसार काम करते थे।

आप लोगों ने जिन बातों का उल्लेख किया है―इस कथा का तात्पर्य वर्णन करने में आप लोगों ने जो जो बातें कही हैं―वे बातें बहुत ही साधारण हैं। मान लो कि रामायण का तात्पर्य ऐसा समझा जाय कि राजा के घर में जन्म लेने पर भी अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, और शकुन्तला का यह तात्पर्य निकाला जाय कि उपयुक्त अवसर पर स्त्री-पुरुषों के हृदय में परम्पर प्रेम का मञ्चार हो जाना कुछ असम्भव नहीं है तो यह बात बहुत ही साधारण होगी। इस छोटी सी बात को प्रकट करने के लिए कवि का इतना परिश्रम उठाना उचित नहीं कहा जा सकता।

इसके बाद नदी ने कहना शुरू किया। उसने कहा―मैं तो