पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२७७

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विचित्र प्रबन्ध । गई हैं, पर्वतों के माथे पर बर्फ का मुकुट पहना कर नीले आकाश में वे किस महत्त्व से खड़े किये गये हैं, पश्चिम-समुद्र के किनारे अस्ताचल-पट पर कैसे रङ्ग-बिरंगे चित्र अंकित किये गये हैं। देखा न, पृथिवी-तल से लेकर आकाश तक कितनी सजावट, कितने रङ्ग, कितनी सुन्दरता है। इन्हीं सबको देखकर हम लोगों का मन लुभा गया है। ईश्वर की जिन रचनाओं में महत्व, प्रेम और सौन्दर्य आदि प्रकाशित हुए हैं उनमें स्वयं ईश्वर को उनका गुण बनना पड़ा है। वहाँ स्वयं ईश्वर ही ध्वनि-छन्द, वर्ण-गन्ध आदि के रूप में परिणत हुए हैं। ईश्वर ने वन में जो फूल खिलाये हैं, उनमें पंखड़ियों के अनुप्राम का कैसा व्यवहार किया है; आकाश-पट पर एक ज्योतिःपिण्ड की स्थापना करने के लिए उन्होंने कैमी नियमित और सुव्यवस्थित छन्द-रचना की है। विज्ञानशास्त्र उनकं पद और छन्दों की ही गणना करता है। इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने भाव प्रकट करने के लिए अनेक प्रकार की निपुणता काम में लानी पड़ती है। उसे शब्द के साथ संगीत का संयोग करना पड़ता है, उसमें सुन्दरता लानी पड़ती है, तब कहीं मन का भाव मन में जाकर प्रवेश करता है। यह यदि कृत्रिम कहा जा सकता है तो यह बात भी माननी पड़ेगी कि यह समस्त संसार कृत्रिम है । इतना कह कर नदी मेरी ओर देखने लगी। उसकं देखने के ढङ्ग से मालूम पड़ता था कि वह मुझसे सहायता चाहती है। वह अपनी कातर दृष्टि से यह बात कह रही थी कि न मालूम मैंने क्या क्या कह दिया है, यदि तुमसे हो सके तो मेरी बातें लोगों को साफ़ साफ समझा दो। इसी समय बीच ही मैं अकस्मात्