पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२५१

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विचित्र प्रवन्ध । कम होगई है। इस समय मूखों और अयोग्यों का भी संसार में एक अच्छा स्थान मिल गया है। इस समय के काव्य उपन्यास प्रादि भी भीष्म, द्रोण आदि को छोड़कर इस मूक जाति की भाषा और भस्माच्छन्न अंगारे के प्रकाश को प्रकाशित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। वायु ने कहा--पहले पहल साहित्य सूर्य का प्रकाश ऊँचे पर्वत- शिखर पर ही पड़ा था, अब धीरे धीरे वह प्रकाश उपत्यका पर फैलता हुआ दरिद्रों की छोटी छोटी झोपड़ियां को भी प्रकाशित करने लगा है। मैं दोपहर के समय नदी के किनार पर बसे हुए गाँव के एक घर में बैठा हूँ। घर के एक कान में छिपकली टिक टिक कर रही है। दीवार पर पंखा लगाने के छेद में एक जाड़ा पक्षी अपना घांसला बनाने के लिए बाहर से घास-तिनके आदि ला रहे हैं। वे चों चों करते और बड़ी व्यग्रता के साथ बाहर आते-जाते हैं। नदी में एक नाव जा रही है। ऊँचे किनारं के पास नीले आकाश में उसका मस्तूल और उड़ाये हुए पाल का कुछ हिस्सा देख पड़ता है। धौरे धोरे हवा चल रही है। आकाश भी साफ़ है। नदी के उस पार के किनारे से लेकर मेरे बरामद के सामनेवाले बाग तक एक चित्र की तरह धूप फैली है । यहाँ मैं बड़े आनन्द से रहता हूँ । जैसे बालक माता की गोद में कभी क्रोध, कभी प्रानन्द और कभी स्नेह पाता है, वैसे ही मैं इस वृद्ध प्रकृति की गोद में बैठा हूँ और जीवन तथा प्रादर-पूर्ण कोमल उत्ताप चारों ओर से मेरे शरीर में