पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२४५

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विचित्र प्रबन्ध । तरह अपने को प्रकाशित करता है। उसकी ओर देखने से यही जान पड़ता है कि प्राचीन मनुष्यत्व नवीन रूप धारण करके प्रकाशित हुआ है। दीप्ति ने कहा-मन और चरित्र का वह स्वरूप ही हमारा प्रादर्श है। उसी के द्वारा हम लोग परस्पर परिचित और परीक्षित होते हैं ! मैं कभी कभी विचारती हूँ कि हमारा आदर्श कैसा है, वह किस प्रकार का है ? पर समालोचक जिसको अपनी भाषा में प्राचल कहते हैं, सो नहीं है- वायु ने कहा-पर वह तंजस्वी अवश्य है। तुम जिस स्वरूप के विषय में कह रही हो, जो हम लोगों का अपना है, उसीकी बातें हम भी कहते थे, विचार के साथ साथ स्वरूप की भी रक्षा होनी चाहिए। इसी बात के लिए हम भी अनुरोध करते थे। दीप्ति ने मुसकुरा कर कहा--पर सबका आकार एक प्रकार का नहीं होता । इस कारण अनुरोध करने के पहले कुछ विचार कर लेने की भी आवश्यकता है। किसका स्वरूप स्वयं प्रकाशित होता है, और किसके स्वरूप को प्रकाशित करना पड़ता है। होरा आप ही प्रकाशित होता रहता है । उसका प्रकाश फैलाने के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं हुआ करती । उसको तोड़ फोड़ कर कोई उसका प्रकाश नहीं फैलाता। पर तृण प्राप ही नहीं प्रकाशित होता, जलानं पर उससे प्रकाश उत्पन्न होता है। हम ऐसे क्षुद्र प्राणियों के मुख में यह विलाप नहीं सोहता कि साहित्य में हमारा स्वरूप ठीक नहीं रहता। बहुत लोग ऐसे हैं जिनकी सत्ता ही हमारे लिए एक नई शिक्षा और नया प्रानन्द है। जो जिस प्रकार 1