पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२३८

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पञ्चभूत। कहा---तुम सदेह वर्तमान हो, हर घड़ो तुम्हारी नई नई बातें, नये नये भाव प्रकाशित होते हैं। और इस बात को दूसरों को जताने के लिए तुम्हें कुछ भी प्रयत्न नहीं करना पड़ता। पर जो बातें लिखी जाती हैं, उनकी सचाई प्रमाणित करने के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं। जो पहली सत्य बात तुम्हारे विषय में लिखी गई है उसको प्रमाणित करने के लिए भी प्रयत्न करने की आवश्यकता है। यदि ऐसा न किया जाय तो एक प्रत्यक्ष बात की तुलना एक अप्रत्यक्ष बात के साथ कैसे की जा सकती हैं ? तुम जो समझती हो कि तुम्हारे द्वारा मैंने बड़ो बड़ी बातें कहलाई हैं सो ठीक नहीं। मैंने तो तुमको संक्षिप्त कर लिया है। इस पुस्तक में तुम्हारी सब बातों, कामों और प्राकार-इङ्गित आदि का कंवल सार-संग्रह किया गया है। नहीं तो तुमने जितनी बातें मुझसे कही हैं ठीक उन्ही बातों का मैं किसी के आगे प्रकट नहीं कर सकता था। लोग बहुत कम सुनते और उनका ठीक भाव न ग्रहण कर सकते । नदी ने अपना मुंह दूसरी ओर फेर लिया और पुस्तक के पन्ने उलटन-पलटने लगी। तदनन्तर उसने कहा,-तुम मुझ पर प्रेम करते हो, इसी कारण मुझको बहुत बड़ी समझते हो। लेकिन उत्तनी बड़ी सचमुच मैं नहीं हूँ। मैंने कहा-क्या मैं तुम पर इतना म्नेह करता हूँ कि जिससे तुम जो हो, तुम्हारा जैसा स्वरूप है, उसे मैं ठीक ठीक जान सकूँ? एक मनुष्य की सब बातों को यथार्थ जान ले, ऐमा प्रेम ईश्वर के सिवा और किस में है ? इन बातों को सुन कर क्षित्ति घबरा गई । उसने कहा-अब