नष्ट कर देने की अपेक्षा स्वतन्त्र रहना ही अच्छा है। किसी कवि ने कहा है कि ईश्वर ने अपने ही पितृ-भाग और मातृ-भाग से इस संसार मेँ स्त्री-पुरुष की सृष्टि की है। अतएव वे विच्छिन्न टुकड़े आपस में मिलने के लिए बड़े आनन्द से आकृष्ट होते हैँ। इस वियोग के बिना आपस मेँ इतना घनिष्ट परिचय नय होता। एक हो जाने की अपेक्षा सम्मिलन मेँ ही आध्यात्मिकता की अधिक मात्रा है।
हम लोग पृथिवी को और नदी को माता कहते हैं। वट और अश्वत्थ के वृक्षों की पूजा करते हैं। हम लोग पत्थर को सजीव समझते हैं। पर आत्मा के भीतर उसकी आध्यात्मिकता का अनु- भव नहीं करते। हम लोग उन पत्थर आदि मेँ अपनी किसी कल्पित मूर्त्ति का आरोप कर लेते हैं और उससे सुख-सम्पत्ति- सफलता की आशा करते हैं। पर आध्यात्मिक सम्बन्ध स्वार्थ-सिद्धि के लिए नहीं होता। वह सम्बन्ध केवल सौन्दर्य-मय तथा आनन्दमय है। इसमेँ किसी के लाभ-हानि का विचार नहीं रहता। स्नेह और सौन्दर्य की गंगा के प्रवाह से आत्मा जिस समय आनन्दित होता है उसी समय वह आध्यात्मिकता से पूर्ण होता है। पर जब वह किसी आकार में बाँध दिया जाता है और उससे इस लोक तथा परलोक में कल्याण की प्रार्थना की जाने लगती है तब उसकी आध्यात्मिकता चली जाती है और वह सौन्दर्य-हीन मोह तथा अन्ध अज्ञानता के रूप में परिणत हो जाता है। उस समय हम लेग देवता का पुतला बना दन है।
हे गंगे, मैं तुम से इस लोक के लिए सम्पत्ति तथा परलोक के लिए उत्तम गति की प्रार्थना नहीं करता। यह कुछ मुझको न चाहिए,