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विचित्र प्रबन्ध।

उनकी अटल अचल धारणा है। वे जिसको प्रत्यक्ष रूप से एक दृढ़ आकार में पाती हैं और आवश्यकता के अनुसार उसे अपने काम में भी ला सकती हैं, वही उनकी दृष्टि में सत्य पदार्थ है। वे कहती हैं―जो आवश्यक ज्ञान हैं उन्हीं का भार वहन करना यथेष्ट कठिन है। धीरे धीरे बोझ भारी होता जाता है और शिक्षा भी असाध्य होती जाती है। पहले के समय जब ज्ञान-विज्ञान के अङ्ग-प्रत्यङ्ग इतने पुष्ट नहीं हुए थे और जिस समय लोगों को सीखने के लिए भी बहुत थोड़ो ही बातें थीं उस समय के लोग शौकीनी की शिक्षा भी ग्रहण करते थे। पर आज वह समय नहीं है। छोटे छोटे बच्चों को अलङ्कार, वेश-भूषा आदि पहनाया जा सकता है, इसमें कोई हानि नहीं है। उनको खाने-पीने के सिवा और काम ही क्या है? पर जिनकी अवस्था बड़ी होगई है, जिनको इधर उधर घूम फिर कर काम-काज करने पड़ते हैं, उनके पैर में नूपुर, हाथ में कङ्कण तथा सिर पर मोर-पुच्छ आदि सजाने से कैसे काम चल सकता है? उनको तो कछनी काछ कर और सिर की रक्षा का कोई उपाय करके वेग से आगे बढ़ना होगा। इसी कारण सभ्यता की उन्नति के साथ साथ अलङ्कारों का माहात्म्य घटता जाता है। उन्नति का अर्थ ही यह है कि जो आवश्यक है उसका ग्रहण किया जाय और जो अनावश्यक है उसका त्याग।

श्रीमती अप् ( जिनको मैं नदी कहूँगा ) क्षिति के तर्कों का कोई उचित उत्तर नहीं दे सकीं। वे बार बार यही कहने लगीं― "नहीं नहीं, यह बात कभी सत्य नहीं है। यह बात हमारे मन में नहीं बैठती।" वे बार बार "नहीं नहीं कहती हैं। वे न तो