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योरप की यात्रा।

दिया। अपनी स्वाभाविक अटल गम्भीरता धारण करके वह सरोवर-तीर के ध्यान में मग्न हुआ। गीदड़ बीच बीच में उसकी ओर देखता था और कहता था―"क्यों भाई, खाते क्यों नहीं? व्यर्थ ही हमने आपको कष्ट दिया, आपके योग्य तैयारी नहीं हुई।" बगला भी सिर हिला हिलाकर उत्तर देता था―"ओह यह क्या बात है। भोजन बहुत ही सुन्दर बना है, पर न मालूम क्यों आज मुझे भूख नहीं है।" दूसरे दिन बगले ने गीदड़ को निमन्त्रण दिया। गीदड़ न बगले के घर जाकर देखा कि लम्बे और छोटे मुँह वाले बर्तनों में भोजन की उत्तम उत्तम चीजें रक्खी हुई हैं। देखते ही खाने की इच्छा होती है पर गीदड़ बेचारा करे क्या! उसका मुँह तो उन बर्तनों मेँ जाता ही नहीं। शीघ्र ही बगला भोजन करने लगा। गीदड़ बाहर ही से पात्र चाटने तथा इधर उधर गिरा हुआ खाने लगा। अन्त को वह भूखा ही अपने घर लौट गया।

जातीय भोज में विदेशियों की भी यही दशा होती है। भोजन की वस्तुएँ तो दोनों के लिए योग्य हैं, परन्तु पात्र मेँ भेद है। अँगरेज़ यदि गीदड़ हैँ तो उनके बड़े बड़े चाँदी के थालों मेँ पायस रक्खा हुआ है, और हम लोगों को केवल देखकर ही भूखे लौट आना पड़ता है। और, यदि बेचारे हम लोग बगले हों तो हमारे पत्थर के पात्र में क्या रक्खा हुआ है, यह गीदड़ देख भी नहीं सकते। केवल दूर ही से उसकी गन्ध सूँघ कर लौट जा सकते हैं।

प्रत्यक जाति का प्राचीन इतिहास और उसका आचार- व्यवहार आदि उसके लिए तो सुविधा-जनक अवश्य है, पर दूसरों