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मां है:।

सारा भण्डार नहीं खोल देता; उसे केवल जूठन देकर द्वार पर डाल रखता है। किन्तु जो मृत्यु का बुलावा पाते ही चुटकी बजाकर चल देते हैं, और सदा आदर पाये हुए सुख की और एक बार फिरकर भी नहीं देखते, सुख उन्हीं को चाहता है और सुख को भी बेही जानते हैं। जो दृढ़ता के साथ त्याग कर सकते हैं वेही निःशङ्क हो कर भोग भी कर सकते हैं। जो मरना नहीं जानते उनके भोगविलास की दीनता दुर्बलता और घृणितपन––धोड़े-गाड़ी तमगा-चपरास से––नहीं ढँका जा सकता त्याग की विलासशून्य कठोरता मैं पुरुषार्थ है। यदि इच्छापूर्वक उस त्याग को हम स्वीकार करें तो निःसन्देह हम अपने को लज्जा से बचा सकते हैं।

यही दो मार्ग हैं। एक क्षत्रिय का है और दूसरा ब्राह्मण का। जो मृत्यु-भय की उपेक्षा करते हैं, पृथ्वी का मारा सुख और ऐश्वर्य उन्हीं का है। जो जीवन के सुख को तुच्छ समझते हैं उन्हों को मुक्ति का आनन्द मिलता है। इन दोनों मार्गों में पुरुषार्थ है।

प्राण देंगे, यह बात कहना जैसे कठिन है, सुख न चाहिए––यह कहना भी उससे कम कठिन नहीं है। पृथ्वी पर यदि मनुष्यत्व के गौरव से सिर उठा कर चलना चाहें तो इन दोनों बातों में से एक बात अवश्य कहनी पड़ेगी। या तो पुरुषार्थ के साथ कह कि "चाहिए!" और या पुरुषार्थ के साथ ही कहें कि "नहीं चाहिए!" "चाहिए" कह कर रोवेंगे, लेकिन लेने की शक्ति नहीं है; "नहीं चाहिए" कह कर पड़े रहेंगे, उद्योग न करेंगे––इस प्रकार के धिक्कार को धारण करके भी जो जीते हैं उन्हें यमराज यदि दया करके इस लोक से हटा न दें तो उनके मरने के लिए कोई उपाय नहीं है।