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विचित्र प्रबन्ध।

के साथ दौड़ने का प्रयत्न कर रही है। बीच बीच में पुल की लोहे की ज़ञ्जीर मुट्ठी से नदी की कमर नापती हुई सी मालूम पड़ती है। एक स्थान पर नदी का मार्ग बहुत ही तङ्ग होगया है। दोनों किनारे के वृक्षों की क़तारें आपस मेँ मिल कर नदी के प्रवाह को रोकने का व्यर्थ प्रयत्न कर रही हैं। ऊपर से झरना आकर नदी के प्रवाह में मिल रहा है। नदी के पूर्व तीर पर एक टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी चली गई है। यहाँ आकर नदी से हम लोग बिछड़ गये। अकस्मात् वह दक्षिण की ओर से आकर उत्तर की पर्वत-माला में लीन होगई।

हरी भरी घास से परिपूर्ण पर्वत-माला के बीच में कहीं कहीं ऊँचे पर्वत खड़े हैं। उन पर्वतों पर घास-फूस कुछ नहीं है। केवल रेखाङ्कित पत्थर देख पड़ते हैं। मानों वे पहाड़ नंगे खड़े हैं। कहीं कहीं उनका कुछ भाग वृक्षों से ढँका हुआ है। मालूम होता है, किसी युद्ध में किसी प्रचण्ड दैत्य ने अपने पैने नखों के नकोटे मार कर उनकी बहुत सी खाल नोच ली है।

अकस्मात् वही नदी फिर दाहनी ओर देख पड़ी और फिर बाई और चली गई। वह कभी दाहनी ओर और कभी बाई ओर देख पड़ती है, और कभी छिप जाती है। बड़ी दिल्लगी है। सम्भव है, आगे जाकर किसी पर्वत की ओट में से हँसती हुई सामने आकर वह फिर खड़ी हो जाय।

अब अंगूर आदि के खेत बहुत कम हो गये हैं। अब केवल लम्बे सीधे पाप्लर पेड़ों की क़तारें और अन्न के खेत ही मिलते हैं। भुट्टा, तम्बाकू तथा साग-सब्ज़ी आदि के ही खेत इधर अधिक हैं। मालूम होता है, केवल बाग़ बाद बाग़ ही आरहे हैं। पर्वत