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विचित्र प्रबन्ध।

के समान, छाया-पथ के उस प्रान्त वाले दृरवर्त्ती शान्ति-निकेतन के एक चित्र के समान, पश्चिम दिशा के छोर की गङ्गा की धारा में अंकित से देख पड़ते हैं। धीरे धीरे सन्ध्या का प्रकाश जाता रहा। वन में इधर उधर एक-आध दीपक जल उठे। इसी समय सहसा दक्षिण दिशा से हवा चलने लगी―वृक्षों के पत्ते झर झर करके हिलने लगे। अन्धकार मेँ बड़े बेग से नदी बह रही थी, तरंगों के आघात से दोनों तौर पर छल छल शब्द हो रहा था― अब कुछ भी अच्छी तरह देख-सुन नहीं पड़ता,―केवल झींगुरों का शब्द सुनाई पड़ रहा है और जहाँ तहाँ जुगनू चमक रहे हैँ। अन्धकार में जुगनू चमकते हैं और फिर उनका प्रकाश बुझ जाता है। और भी रात बात गई। धीरे धीरे कृष्णपक्ष की सप्तमी की रात्रि का चन्द्रमा अन्धकार को दूर करता हुआ पीपल के पेड़ के ऊपर से होकर आकाश में दिखाई पड़ा। नाचे वन का घोर अन्ध- कार, और ऊपर क्षोण चन्द्रमा का प्रकाश था। थोड़ा सा प्रकाश अन्धकारमयी गङ्गा के बीच में एक जगह पड़ कर लहरों से चूर चूर सा हो जाता है। उस पार की अस्पष्ट वृक्ष-माला पर और थोड़ा सा प्रकाश पड़ा। उस उतने प्रकाश मेँ कुछ भी साफ़ साफ़ नहीं देख पड़ता। वह प्रकाश केवल उस पार की दूरता और अस्फुटता का रहस्यमय बना देता है। इस पार निद्रा का राज्य है और उस पार स्वप्न का देश सा जान पड़ता है।

ये सब गङ्गा के सुन्दर चित्र जी मेरे मन में अङ्कित हो रहे हैँ, सो सब इसी यात्रा के फल नहीं है। ये सब कितने ही दिनों के कितने चित्र मन में अङ्कित हैं। ये बड़े ही सुख के चित्र हैँ। आज