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सरोजिनी की यात्रा।

दूसरी ओर तीर पर रेती के ऊपर बड़ी दूर तक काश का वन है। शरद् ऋतु में जब वह वन फूलता है तब वायु के प्रत्येक झकोरे में यहाँ जैसे हँसी के सागर में लहरें उठती हैं। चाहे जिस कारण हो, गङ्गा-तीर के ईटों के पजावे भी देखने में मुझे अच्छे लगते हैं। उनके आस पास वृक्ष-पंक्ति नहीं है, वहाँ की आस-पास की ज़मीन जली हुई और ऊबड़ खाबड़ है, इधर उधर ईंटें बिखरी पड़ी हैं, कितने ही खंजर (झाँवां) पड़े हुए हैँ, आस पास की मिट्टी कष्ट कर निकाल ली गई है। ऐसे कठोर ऊसर स्थान में अभागों की तरह पजावे कसे खड़े हैं! वृक्षों को क़तारों मेँ से शिव के द्वादश मन्दिर देख पड़ते हैं। सामने ही घाट है। वहाँ नौबतखाने पर नौवत बज रही है। उसके पास ही पार उतरने का घाट है। कच्चा घाट है, ताड़ का लकड़ियों से वह बाँधा गया है। उसके दक्षिणा की ओर कुँभारों के घर हैँ। छप्परों पर कुम्हड़े फले हुए हैं। एक अधड़ी स्त्री झोंपड़ी की दीवार पर गोबर लीप रही है। आंगन सुन्दर स्वच्छ है। उसी आँगन में एक ओर टट्टर पर लौकी की लता फैली है और दूसरी ओर तुलसी का वृक्ष है। सन्ध्या के समय तरङ्ग-शेन्य गंगा में नाव पर चढ़ कर जिसने गङ्गा के पश्चिम तट की शोभा नहीं देखी उसने बङ्गाल की कुछ भी सुन्दरता नहीं देखी। इन पवित्र शान्तिमय और सुन्दर दृश्य का यथार्थ वर्णन करना असम्भव है। सुनहरे और मलिन वर्ण के सन्ध्या के प्रकाश में बड़े बड़े नारियल के पेड़, मन्दिरों के शिखर, आकाश-पट में अंकित से बड़े बई वृक्ष, निश्चल जल में सन्ध्या के प्रकाश का प्रतिबिम्ब, सुमधुर विश्राम, निःस्तब्धता और अगाध शान्ति-ये सब मिलकर नन्दन वन की झलक