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विचित्र प्रबन्ध।

ऊँची-नीची पृथिवी समुद्र के समान नि:स्तब्ध और निःशब्द पड़ी है। सन्ध्या के सुनहरे अन्धकार की छाया दिशाओं में चारों ओर व्याप्त हो गई है। कहीं मनुष्य तथा जीव-जन्तु का पता नहीं है। तथापि मालुम होता है कि किसी विराट पुरुष के सोने के लिए इस शय्या की तैयारी की जा रही है। कोई जैसे पहरेदार की तरह मुख पर उँगली रक्खे चुप रहने का इशारा करता हुआ खड़ा है, इसी कारण भय से सब की साँस भी बन्द है। दूर से एक पथिक की छाया देख पड़ी। वह घाड़े पर समान लादे हुए था। हम लोगों के पास ही से वह धीरे धीरे चला गया।

जाग कर, सोकर, करवटें बदल कर, किसी तरह मैंने रात बिताई। प्रातःकाल उठने पर देखा कि बाई और बड़ा सघन वन है। हर एक वृक्ष से लताएँ लिपटी हैं और भूमि गुल्मों से ढँकी हुई है। वन के ऊपर दूर पर के पहाड़ का नीला शिखर देख पड़ता है। बड़े बड़े पत्थर हैं। दो पत्थरों के बीच से पेड़ निकले हैँ। वृक्षों की भूखी जड़े लम्बी लम्बी होकर चारों ओर से बाहर निकल पड़ी हैँ। पत्थरों को फाड़ कर अपनी दृढ़ मुट्ठी से जैसे वे अपने खाने की चीज़ पकड़ना चाहती हैं। थोड़ी ही देर में अकम्मात् वह बाईं और का वन न जानें कहाँ चला गया। बड़ी दूर तक मैदान ही मैदान देख पड़ा। उसमें दूर पर पशु चर रहे हैँ। वे दूर होने के कारण बकरों के समान छोटे छोटे देख पड़त हैं। बैलों या भैंसों के कंधे पर हल रक्खे, उनकी पूँछ उमेठते हुए, किसान खेत जोत रहे हैं। जोते हुए खेत बाई ओर के पहाड़ पर सीढ़ियों की तरह, तह की तह, देग्य पड़ते हैं।