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मन्दिर।

बड़ी उपमा में यह बात नहीं हो सकती थी। यह उपमा छोटी है; इसीसे इसने सत्य को बड़े महत्व से, बृहत् बना कर, प्रकाशित किया है। बृहत् मत्य को देखनेवाले का चिन्ता-रहित साहस छोटी उपमा में ही ठीक ठीक प्रकाशित हो सका है।

ये दोनों पक्षी हैं। इनके पंख आपस में मिले हैं। ये दोनों मित्र हैं और एक ही वृक्ष पर रहते हैं। इनमें एक भोग करने वाला और दूसरा साक्षी है। एक चञ्चल है और दूसरा नित्य।

भुवनेश्वर का मन्दिर भी जैसे इसी मन्त्र को धारण करता है। उसने देवालय से मनुष्यत्व का पोंछ कर फेक नहीं दिया। उसने दोनों पक्षियों का एक साथ रख कर उक्त श्र्लोक के भाव की ही घोषणा की है।

किन्तु भुवनेश्वर के मन्दिर में जैसे और भी कुछ विशेषता है। ऋषि-कवि की उपमा में एकान्त वन की निपट निजनता का भाव रह गया है। इस उपमा की दृष्टि से प्रत्येक जीवात्मा जैसे अकेले ही परमात्मा से सम्बन्ध-युक्त है। इस वर्णन से जो चित्र मन में अङ्कित होता है उसमें हम लोग देखते हैं कि मैं भोग करता हूँ, भ्रमण करता हूँ, उसी 'मैं' में ही वह "शान्तं शिवम- द्वैतम्" ( शान्त और अद्वैत कल्याण ) अटल भाव से प्रकट है।

किन्तु यह एक ही के साथ एक का संयोग भुवनेश्वर के मन्दिर मेँ नहीं अङ्कित हुआ है। वहाँ समस्त मनुष्य अपने समस्त कर्म―समस्त भोग लेकर, अपने तुच्छ और महान् इतिहास को लिये हुए, समग्र भाव से एक होकर, अपने ही बीच मेँ अन्तरतर रूप से―साक्षी के रूप से, भगवान् को प्रकाशित कर रहा है। निर्जन