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विचित्र प्रबन्ध।

कहीं भी ख़ाली जगह नहीं है। जो देख पड़ता है और जो नहीं दख पड़ता, सर्वत्र शिल्पी की आलम्यहीन चेष्टा ने काम किया है।

वे चित्र विशेष रूप से पौराणिक ही नहीं है। दस अवतारों की लीला, अथवा स्वर्ग-लोक की देव-कहानी के ही चित्र मन्दिर पर नहीं खुद हुए हैं। मनुष्य की छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी, प्रतिदिन की घटनायें―उसके खेल और काम, युद्ध और शान्ति, घर और बाहर आदि के सुन्दर चित्र―उस मन्दिर को चारों ओर घेरे हुए हैं। इन चित्रों के बीच और कोई उद्देश्य मुझे नहीं देख पड़ता। इन चित्रों के बनाने का उद्देश्य केवल यही जान पड़ता है कि संसार किस प्रकार चलता है, यह बात चित्र के रूप में दिखा दी जाय। अतएव इन चित्रों के भीतर ऐसी बहुत सी चीजें देख पड़ती हैं, जो एकाएक देखने से देवालय पर अंकित होने योग्य नहीं जान पड़तीं। इन चित्रों के लिखनेवालों ने इस बात का विचार नहीं किया कि कौन चित्र रखने योग्य और नहीं रखने योग्य है। तुच्छ और सहत, गोपनीय और प्रकाशनीय सभी कुछ इन चित्रों में है।

किसी गिरजे में जाकर यदि मैं देखता कि वहाँ अँगरेज़-समाज के प्रति दिन के व्यवहारों के चित्र टँगें हुए हैं―कोई खाना खा रहा है, कोई डग कार्ट ( एक घोड़े की गाड़ी ) हाँक रहा है, कोई 'ह्विस्ट' खेल रहा है, कोई पियानो बजा रहा है, कोई अपनी साथिन के गलवहियाँ डाले नाच रहा है―तो मैं चकित होकर सोचने लगता कि शायद मैं स्वप्न देख रहा हूँ। क्योंकि गिरजा तो संसार का सब तरह मिटा-हटा कर अपनी स्वर्गीयता प्रकट करने