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मन्दिर।

मनुष्य के हृदय ने यहाँ कौन सी बात जोड़ रक्खी है? भक्ति ने क्या रहस्य प्रकाशित किया है? मनुष्य ने उस अनन्त से अपने अन्तःकरण में ऐसी कौन वाणी पाई थी जिसके प्रकट करने की भारी चेष्टा से पहाड़ की तरहटी का यह भारी मैदान भरा पड़ा है?

ये जो सैकड़ा देवालय हैं―जिनमें से अधिकांश में आज सन्ध्या की आरती का दीपक भी नहीं जलता, शंख-घण्टा आदि नहीं बजते, जिनके खुदे हुए पत्थर इधर उधर धूल में बिखरे पड़ें हैं―ये किसी एक व्यक्ति―विशषे की कल्पना का परिचय नहीं देते। ये उस समय की―उस अज्ञात युग की-भाषा से परिपूर्ण हैं।

इन देवालयों ने अपनी निगूढ़ निःस्तब्ध चित्-शक्ति के द्वारा दर्शक के अन्तःकरण में जिस भाव की हलचल मचा दी है उसकी आकस्मिकता और सम्पूर्णता का वर्णन करना कठिन है। अत- एवं उसका विश्लेषण करके, उसके टुकड़े टुकड़े करके, कहन के लिप प्रयत्न किया जायगा। मनुप्य की भाषा यहीं पत्थरों के आगे हार मानती है। पत्थरों का सिलसिलंवार वाक्यों का प्रयोग नहीं करना पड़ता―वे न्पष्ट कुछ नहीं कहते। उन्हें जो कुछ कहना होता है उसे वे एक ही साथ कह देते हैं; वे एक साथ ही पल भर मेँ मनुष्य के हृदय पर अधिकार जमा लेते हैं। अतएव मन ने क्या समझा, क्या सुना, और क्या पाया―आदि बातों को भाव के द्वारा समझ लेने पर भी भाषा के द्वारा समझने का अवसर नहीं मिलता। अन्त मेँ धीरे धीरे उन सब बातों को अपनी बातों में समझना पड़ता है।

मैंने देखा, मन्दिर की भीत पर चारों ओर चित्र खुदे हुए हैं।